रथ्याकीर्णविशीर्णजीर्णवसनः सम्प्राप्तकंथासनो निर्मानो निरहंकृतिः शमसुखाभोगैकबद्धस्पृहः।।
हिंदी में भावार्थ-भीख मांगने वाले, लोगों की भीड़ में अकेले रहने वाले, सदा स्वतंत्र रहने वाले, सदा दान और धर्म में रहने वाले, सामान्य व्यवहार में व्यवसायिकता न दिखाते हुए मान अपमान से परे जीर्णशीर्ण आसन पर बैठने वाले और अहंकार से रहित कोई कोई सच्चे योगी ही इस संसार में होते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-धर्म के नाम पर पाखंड करने वाले लोगों की संख्या कभी इस देश में कभी कम नहीं रही-कम से कम भर्तृहरि महाराज के इस कथन से तो यही लगता है। यह भारतीय अध्यात्म की सबसे बड़ी खूबी है कि वह सत्य का पहचानता है और मानसिक दृष्टि में उसकी चमक स्वाभाविक रूप से दिखती है। सत्य यह है कि इस सृष्टि और जीवन के मूलतत्व के गुण ही उसके संचालन में सहायक होते हैं। आदमी को चलाता मन है और उसे लगता है कि वह स्वयं चल रहा है। चतुर और व्यवसायिक प्रवृत्ति के लोग दूसरों के इसी मन को वश करने के उपाय करते हैं। एक तो वह लोग हैं जो मनोरंजन के नाम पर यह काम ईमानदारी से करते हैं पर दूसरे वह भी हैं जो मन को शांति दिलाने के नाम पर भारतीय अध्यात्म के चमकदार सूत्र नारों की तरह सुनाकर उनकी अध्यात्मिक भूख को शांत करने का व्यापार करते हैं। यह भी एक तरह का मनोरंजन है पर इससे वह अध्यात्मिक शांति नहीं मिलती जिसकी आदमी अपेक्षा करता है। कुछ देर प्रवचन सुने फिर उसी हालत में मन पहुंच गया तो क्या लाभ? अध्यात्मिक शांति और लाभ तो तभी हो सकता है जब मन में भटकाव कभी न आये। आदमी सांसरिक कर्तव्य में संलग्न रहे पर उसका भाव उसमें लिप्त न हो।
मगर भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान बेचने वाले कथित व्यापारी स्वयं ही भोगों के रोगों का शिकार रहते हैं तो वह दूसरे को क्या उबारेंगे?
ऐसा तो कोई कोई योगी होता है जो मान अपमान से परे होकर किसी प्रकार की लाभ की आशा न करते हुए रह सकता है। बाकी दिखावा करने वाले बहुत हैं। सन्यास लेने के लिये आदमी एकाकी स्थान पर जाता है और पर आजकल के फाईव स्टार आश्रम बनाते हैं।
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1 comment:
जैसे जैसे मैं आपका आलेख पढ़ रहा हूँ , वैसे वैसे मेरा विश्वास दृढ हो रहा है की कहीं कुछ तो है जो दो लोगों का विचार मिला रहा है | नहीं तो ऐसा कैसे हो सकता है की आपका हर लेख पढ़कर मुझे ये लगे की मेरे मन की बात कह रहे हैं ?
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