जो पै भीतर लखि पर, भीतर बाहिर एक।संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अंदर तो प्रवेश किया नहीं पर उस आत्ममय रूप के बाहर अनेक वर्णन किये जाते हैं। एक बार अगर हृदय में उस आत्मा रूप को समझ लें तो फिर अंदर बाहर एक जैसे हो जायेंगे।
अन्धे मिलि हाथ छूआ, अपने अपने ज्ञान।
अपनी सब कहैं? किसको दीजै कान।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अंधे हाथी को छूकर अपना ज्ञान बखान करना शुरु कर जब केवल अपने ही दृष्टिकोण सत्य कहने लगें तो ऐसे में किस पर ध्यान दे सकते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश में अनेक प्रकार के देव देवताओ की मान्यता है। कहने को तो कहा जाता है कि परमात्मा एक ही स्वरूप है पर फिर भी कुछ कथित साधु संत अपने अपने हिसाब से हर स्वरूप को श्रेष्ठ बताते हैं। कुछ तो ऐसे हैं जो हर स्वरूप बखान करते हैं। अध्यात्मिक ज्ञान बेचना एक तरह से व्यवसाय हो गया है। जिस तरह किताब बेचने वाला दुकानदार तमाम तरह की किताबें बेचता है पर उसे सभी किताबों का ज्ञान नहीं होता वह हाल इन धर्म बेचने वालों का है। ऐसे भी दुकानदार देखे जा सकते हैं जो स्वयं एक ही भाषा जानते हैं पर उनकी भंडार में बिकने के लिये अनेक भाषओं किताबें रहती हैं। यही हाल धर्म बेचने वाले कथित साधुओं का है। वह समय और पर्व के अनुसार भगवान के हर स्वरूप की व्याख्या करते हैं पर उसको जानते स्वयं भी नहीं है। उनको तो बस उस पर बोलना है और क्योंकि यह उनकी आय का जरिया है।
सच बात तो यह है कि जो सत्य स्वरूप आत्मा को समझ लेता है वह कोई छद्म रूप धारण नहीं करता। हमेशा अंदर और बाहर से एक जैसा ही होता है।
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