जब हिरदे से भय गया, मिटी सकल रस रीति।।संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भय के बना हृदय में भाव नहीं पैदा होता। बिना भय के प्रीति नहीं होती। जब हृदय से भय मिट गया तो सभी प्रकार के रस और रीति भी मिट जाती है।
भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय।
भय पारस जीव को, निरभय होय न कोय।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भय के कारण ही सभी भक्ति करते हैं। भय से लोग अपने से शक्तिशाली व्यक्ति की पूजा करते हैं। इस प्रकार यह भय ही लोगों के लिये पारसमणि है जो उने पास रहती है। निरभय तो कोई होई नहीं सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सामान्य लोग भय के वशीभूत होकर न केवल भगवान की बल्कि अपने से अधिक शक्तिशाली व्यक्ति की भी भक्ति और पूजा करते हैं। आदमी के मन में मृत्यु, बीमारी, भूख और तथा अन्य संकटों का भय हमेशा ही रहता है इसलिये उस समय किसी की सहायता की चाहत उसे भगवान की भक्ति करने के लिये प्रेरित करने के साथ सांसरिक जीवों की चाटुकारिता के लिये भी बाध्य करती है। इस देह के साथ मृत्यु, बीमारी, भूख और प्यास का प्रकोप निंरतर बना रहता है। आदमी ठीक होने पर बीमारी, पेट भरा होने पर भी भोजन, और गला तर होने पर भी प्यास की चिंता करते हुए मरने से पहले ही कई बार मर चुका होता है। सच बात तो यह है कि इसी भय के कारण वह सामाजिक जीव बना है पर यही उसके लिये बंधन भी बन जाता है। इसी कारण वह भक्ति करते हुए कामनायें मन में पालता है और दया करने से पहले अपने उद्देश्य तय करता है। जबकि हमारे अध्यात्म दर्शन के अनुसान तो निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया करना ही फलदायी माना गया है। वैसे मनुष्य जीवन का चरम सुख तो निर्भय होकर जीने में है तब किसी किसी रस या रीति में दिलपचस्पी नहीं रह जाती पर मोह मनुष्य के अंदर भय को हमेशा जीवित रखता है।
सच तो यह है कि भय एक पारसमणि की तरह है जिसे वह कभी छोड़ना ही नहीं चाहता।
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