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Monday, February 16, 2009

मनुस्मृतिः क्रोध से आठ विकार उत्पन्न होते हैं

पैशुन्यं साहसं मोहं ईष्र्याऽसूयार्थ दूषणाम्
वाग्दण्डजं च पारुघ्यं क्रोधजोऽपिगणोष्टकः

हिंदी में भावार्थ- क्रोध से आठ प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं-चुगली या निंदा करना, दुस्साहस, नकारात्मक विचार,ईष्र्या,दूसरों में दोष देखना,पराये धन के अपहरण की प्रवृत्ति,अभद्र शब्द बोलना और दुव्र्यवहार करना।
द्वयोरप्येत्योर्मूलं यं सर्वे कवयो विदुः
तं त्यनेन ज्येल्लोभं त्ज्जावेतातुभौ गणौ
हिंदी में भावार्थ- काम तथा क्रोध से ही सारे व्यवसन होते हैं। इनमी जननी लालच है अतः सभी लोगों को अपने मन पर आने वाली लालच की भावना पर नियंत्रण करना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सच बात यह है कि इस विश्व में जितने भी प्रकार के अपराध हैं वह काम और क्रोध से उत्पन्न होते हैं। उनकी जननी लालच है। मनुष्य अपने जीवन में जितना कमाता है उतना व्यय नहीं करता पर धन और संपत्ति संग्रह की लालच उसे कही भी रुकने नहीं देती। अगर यह लालच का भाव मनुष्य में नहीं होता तो शायद कोई अपराध इस संसार में नहीं होता। लोग कहते हैं कि भुखमरी से अपराध बढ़ते हैं पर सामाजिक और अपराध विशेषज्ञ इसे नहीं मानते क्योंकि जो अपराधी पकड़े जाते हैं उनमें से कोई ही शायद भूख की वजह से अपराध करता हो। हम देश में फैले सार्वजनिक, सामाजिक और निजी क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार को देखें तो उस अपराध में कोई छोटा आदमी नहीं होता। लोगों के अच्छे खासे वेतन मिलते हैं पर वह फिर भी अपने से कमजोर आदमी से पैसा मांगते या उनको ठगते हुए शर्म नहीं अनुभव करते। जिन लोगों पर दया करना चाहिये उनका ही जेब काटने में उनकी रुचि होती हैं। कल्याण कामों के लिये दान या भाग में रूप में दिया उपलब्ध धन या सामान का अपहरण करने वाले भ्रष्टाचारी लोग केवल उससे अपने घर भरते हैं। समाजसेवा एक तरह से व्यापार हो गया है। दान लेने वाले कुपात्र हैं तो देने वाले भ्र्रष्ट।

हम अपने धर्म,संस्कृति और संस्कारों की दुहाई देते नहीं थकते पर लालच की प्रवृत्ति ने आदमी को लालची बना दिया है। इससे वह कामी और क्रोधी हो गया है। सामाजिक और निजी भ्रष्टाचार में आदमी अगर स्वयं लिप्त हो तो उसे नजर नहीं आता और दूसरा हो तो वह उस पर क्रोध करता है।
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1 comment:

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर बातें कही आपने।

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