पीर न उपजै, जीव की, क्यौं पावै करतार
संत कबीर जी कहते हैं कि अधिक पढ़ना छोड़ दो क्योंकि यह सांसरिक लोगोंे का काम है। अधिक पढ़ने से लोगों के हृदय में दया का भाव उत्पन्न नहीं होता इसलिये परमात्मा को कैसे प्राप्त कर सकते हैं।
मैं जानौं पढ़ना भला, पढ़ने से भल जोग
रामनाम सो प्रीति कर, भावे निन्दो लोग
संत कबीरदास जी कहते हैं कि मै यह समझता था कि पढ़ना अच्छी बात है और पढ़े लिखे लोग भले होते हैं पर अब तो यह लगता है कि राम के नाम से ही प्रेम किया जाये भले ही लोग इसके लिये निंदा करते रहें। पढ़ने से तो अच्छा है कि योग साधना की जाये।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-संत कबीरदास जी कहते के समय में तो केवल प्राचीन साहित्य की शिक्षा दी जाती थी तब भी लोगों का यह हाल था तो अब तो केवल अंग्रेजी पद्धति के आधार पर नवीनतम विषयों की शिक्षा दी जाती है तब यह कैसे अपेक्षा की जाये कि आधुनिक समाज वास्तव में हृदय से संवदेनशील होगा। पहले तो अध्यात्म ज्ञान से परिपूर्ण शिक्षा दी जाती थी तब भी अधिक पढ़े लिखे लोग ज्ञान के अहंकार में आकर समाज को प्रति हृदय हीनता का भाव अपनाते थे तो अब तो अध्यात्म ज्ञान जैसा कोई विषय ही नहीं है तब यह कैसे अपेक्षा की जाये कि शिक्षित वर्ग में समाज के प्रति संवेदना का भाव रहे।
देखा जाये तो लिखने वाले तो आजकल भी जमकर लिख रहे हैं पर उनके पढ़े और कहे को देखकर लगता नहीं है कि उनके अंदर को का वैसे ही संवेदना का भाव हैं जो उनके शब्दों में दिख रहा है। लिखकर केवल नाम और नामा कमाना है केवल इसलिये शिक्षित लोग सक्रिय है। कई तो ऐसे विद्वान भी है जो अध्यात्म के विषय पर बोल रहे हैं पर उनको पता ही नहीं कि इसका क्या आशय है-अध्यात्म नाम का विषय है और बोल रहे हैं किसी धर्म के विषय पर। यह हास्यास्पद स्थिति कई बार देखने को मिलती है। मतलब यह है कि जितना अधिक शिक्षित उतना ही अधिक भ्रमित हो गया है। ऐसे में तो केवल यही लगता है कि भगवान की भक्ति तथा तन, मन और विचारों के विकार दूर करने के लिये योग साधना की जाये तो वही अच्छा है।
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