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Saturday, August 23, 2008

रहीम के दोहे: मनुष्य को उसके कर्म नचाते हैं

ज्यों नाचत कठपूतरी, करम नचावत गात
अपने हाथ रहीम ज्यों, नहीं आपुने हाथ


कविवर रहीम कहते हैं कि जैसे नट कठपुतली को नचाता है वैसे ही मनुष्य को उसके कर्म नाच करने के लिऐ बाध्य करते हैं। जिन्हें हम अपने हाथ समझते हैं वह भी अपने नियंत्रण में नही होते हैं।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जब मैं रहीम के दोहे देखता हूं तो सोचता हूं कि इस संत ने जीभर कर जीवन का आनंद लिया होगा। किसी प्रकार के भ्रम में नहीं जीना ही मनुष्य की पहचान है और रहीम हमेशा सत्य के साथ जिये। सामान्य आदमी कितना भ्रम में जीता है यह उनके दोहे पढ़कर समझा जा सकता है। सभी लोग और आपको कर्ता समझते है जबकि सभी जीवों का शरीर पांच तत्वों से बना वह पुतला है जिसमें तीन प्रकृतियां-मन, बुद्धि और अहंकार -अपना काम करती हैं। आंख है तो देखेगी, कान है तो सुनेंगे, नाक है तो सूंघेगी, पांव है तो चलेंगे और हाथ हैं तो हिलेंगे। मन विचार करता है, बुद्धि योजना बनाती है और अहंकार उकसाता है। हम सोचते हैं कि हम करते हैं जबकि हम तो एक तरह से सोये हुए हैं। अपने आपको देखते ही नहीं। हमारी आत्मा तो परमार्थ से प्रसन्न होती है पर हम अपने कर्मों के अधीन होकर स्वार्थ में लगे रहते हैं जबकि यह काम तो हमारी इंद्रियां तब भी करेंगी जब इन पर नियंत्रण करेंगे। मतलब हम जो कर रहे हैं वह तो करेंगे ही पर जो हमें करना चाहिए परमार्थ वह करते नहीं। सत्संग और भक्ति केवल दिखावे की करते है। कुल मिलाकर कठपुतली की तरह नाचते रहते हैं।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

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