कबीर मन मरकट भया, नेक न कहुं ठहराय
राम नाम बांधे बिना, जित भावै तित जाय
संत शिरोमणि कबीरदासजी कहते हैं कि मन तो बंदर के समान चंचल है कहीं ठहरता हैं। राम नाम लिये और भक्ति के बिना इस पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता है।
कबीर बैरी सबल है, एक जीव रिपु पांच
अपने-अपने स्वाद को, बहुत नचावै नाच
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि हमारी पांचों इंद्रियां-नाक कान, जीभ आंख और त्वचा- शत्रू की तरह लगे हुए हैं और इनके अपनी अपनी चाहते है जो हमें नचाती हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- दरअसल हम अपने मन की महिमा को नहीं समझते इसलिये जीवन भर भटकते रहते हैं। मन कभी एक जगह नहीं टिक सकता और वह बंदर की तरह नाचता और नाचता है। हम यह नहीं समझ पाते। वह किसी एक स्थिति से संतुष्ट नहीं होता तमाम तरह के स्वार्थों के काम के बाद भी उसमें तृप्ति इसलिये नहीं होते क्योंकि हम परमार्थ कर उसे संतुष्ट नहीं कर सकते। स्वार्थ एक दिशा है तो परमार्थ दूसरी दिशा। वह इस दूसरी दिशा भी जाना चाहता है पर हम वह नहीं करते। नतीजा यह है कि हमारी पांच इंद्रिया शत्रू बनकर हमें सताती है। अगर हम यह मान लें कि हमारा मन बंदर है और उसे नाचने दें और परमार्थ का भी कम करें पर ऐसा तभी संभव हो जब हम भगवान की भक्ति करें। वह हमें व्यर्थ नजर आती है इसी कारण अपने मन को समझ ही नहीं पाते तो उस पर नियंत्रण कैसे हो सकता है।
यही वह मन है जिसका इस्तेमाल समझदार लोग दूसरे लोग कर अपना व्यापार चला रहे हैं। आप टीवी और पत्रपत्रिकाओं में आकर्षक विज्ञापन देखते होंगे तब आपको लगता है कि उसमें जिस उत्पाद की प्रशंसा की जा रही है वह ठीक होगा और आपका मन उसे खरीदने को लालायित होने लगता है। इतना ही नहीं आजकल विभिन्न खेलों में सट्टे की खबरें सुनते होंगे। वह कौन लोग हैं जो अपनी जीत-हार की बजाय दूसरों की जीतहार पर दांव खेलते हैं? यह वह लोग हैं जिनका अपने मन पर बस नहीं है। बस कुछ खेलना है और इसलिये खेलते हैं उनकी आंखें और कान ऐसे शत्रू की तरह हो जाते हैं जो कुछ देखना चाहते हैं। क्या? आप मनन करिये क्या इन खेलों को परिणामो से क्या होता है? कुछ देर का सुख या दुःख! पर कुछ लोगों का मन इसमें अपने लिये लाभ समेटना चाहता है। इसमें हानि ही होती है पर फिर भी उनका मन नहीं मानता। ऐसे हजारों लोग हैं जो ऐसी बेवकूफियों में पैसा गंवाते हैं जिनमें समझदार लोग फंसने की सोच भी नहीं सकते। इसलिये अपने मन के गुणदोषों को समझना जरूरी है। अगर हम भक्ति भाव से रहेंगे तो इस पर नियंत्रण कर सकते हैं अन्यथा बंदरों की तरह तो सभी नाच रहे है।
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लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर
Thursday, April 24, 2008
संत कबीर वाणी:देह के अन्दर, मन हैं बन्दर
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