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Friday, January 11, 2008

रहीम के दोहे:विदेश में धन कमाने के लिए सम्मान खोना पड़ता है

भलो भयो घर ते छुट्यो, हँस्यो सीस परिखेत
काके काके नवत हम, अपने पेट के हेत


कविवर रहीम कहते हैं की घर से निकलकर भला ही हुआ, परन्तु सिर पर जो रक्षक है उसने उपहास किया, क्योंकि अपने पेट की खातिर परदेश में जाकर न जाने किस-किस के आगे झुकना पडा.
भावार्थ-आदमी पेट की खातिर अपना घर,अपना देश और अपना परिवार छोड़कर विदेश जाता और अच्छी आय अर्जित कर बहुत खुश होता है पर इसके लिए उसे कैसे-कैसे लोगों के सामने सिर झुकाना पढता है. एक तरह से अपना सम्मान खोना पड़ता है. आदमी की इस प्रवृति को देखकर परमात्मा भी हँसता रहता है.

भार झोंकी के भार में, रहिमन उतरे पार
ये बूड़े बड़े मझधार में, जिनके सिर पर भर


कवि रहीम कहते हैं की इस संसार में भाड़ झोंककर भवसागर से हमारा उद्धार हुआ, परन्तु जिनके मस्तक पर सांसारिक भार (पारिवारिक और सामाजिक उत्त्दायित्व) था वे बेचारे मझधार में ही डूब गए.

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