भले ही हमारा देश अध्यात्म ज्ञान की वजह से पूरे विश्व में प्रसिद्ध है पर हमारे यहां का समाज आज भी तंत्र मंत्र के चक्कर में फंसा हुआ है। यह हैरानी की बात है कि हमारे यहां अधंविश्वासी को ही धर्म भीरु कहा जाता है। हमारे अनेक संतों और ऋषियों ने हमेशा ही अंधविश्वासों का विरोध किया है पर इसके बावजूद समाज के अधिकतर लोग पाखडियों का आसान शिकार बन जाते हैं।
संत कबीर दास कहते हैं
अष्ट सिद्धि नव निधि लौं, सबही मोह की खान
त्याग मोह की वासना, कहैं कबीर सुजान
हिंदी में भावार्थ- आठों सिद्धियां और नवों निधियां तो मोह की खान है। अतः इस मोह को त्याग करना ही श्रेयस्कर है।त्याग मोह की वासना, कहैं कबीर सुजान
चर्चा करु तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय
ध्यान करो तब एकिला, और न दूजा कोय
हिंदी में भावार्थ- जब ज्ञान चर्चा चौराहै पर करो पर जब उसका
अध्ययन करना हो तो दो लोगों की बीच में ही ठीक है। ज्ञान के बारे में जब
ध्यान, चिंतन और मनन करना हो तो उसे एकांत में ही रहे जहां कोई दूसरा
व्यक्ति न हो।ध्यान करो तब एकिला, और न दूजा कोय
हम लोग अक्सर यह कहते हैं कि अमुक संत सिद्ध है और उसकी शरण लेना चाहिए या वह तो बहुत पहुंचे हुए हैं। कई कथित संत और साधु अपने लिये बकायदा विज्ञापन करते हैं जैसे कि बहुत बड़े सिद्ध हों। यह सब ढोंग हैं। अनेक लोग मंत्रों आदि के द्वारा काम सिद्ध करने का दावा करते हैं। यह सब मोह से उपजा भ्रम है। सिद्धियां और निधियों की आड़ में अनेक लोग धंधा कर रहे हैं। सिद्धि केवल मन की शांति के रूप में ही है बाकी तो दुनियां चलती है। माया का भंडार पास में हो पर अगर मन अशांत हो तो वह भी व्यर्थ नजर आता है। इस प्रकार की मानसिक शांति लिये तत्व ज्ञान होना चाहिये। वैसे तो इसके लिये गुरु का होना जरूरी है पर न मिले तो किसी समकक्ष व्यक्ति के साथ बैठकर स्वाध्याय करना चाहिये। उसके बाद अकेले ध्यान में बैठकर अपने द्वारा ग्रहण तत्व पर विचार करना ही ठीक है। हां, उसकी चर्चा चार लोगों के करने में कोई बुराई नहीं है। इस चर्चा से न केवल अपने दिमाग में मौजूद ज्ञान का पूर्नस्मरण हो जाता है और वह पुष्ट भी होता है।
हम जो ज्ञान प्राप्त करें उससे अपने आपको सिद्ध मान लेना मूर्खता है क्योंकि तत्व ज्ञान का रूप अत्यंत सूक्ष्म है पर उसका विस्तार इतना दिया जाता है कि लोग उसका लाभ व्यवसायिक रूप से उठाते हैं। अनेक सिद्धियों और निधियों का प्रचार इस तरह किया जाता है जैसे वह दुनियां में रह मर्ज की दवा हैं। इनसे दूर होकर अपने स्वाध्याय, ध्यान और ज्ञान से अपने मन के विकार दूर करते रहना चाहिये।
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लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’ग्वालियर मध्यप्रदेशWriter-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"Gwalior Madhyapradeshयह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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