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Saturday, July 10, 2010

पतंजलि योग साहित्य-निर्विचार समाधि से बुद्धि ऋतंभरा होती (patanjali yoga sahitya-nirvichar samadhi)

पतंजलि योग सूत्र एक संपूर्ण विज्ञान है। जिसमें अनेक श्लोक हैं और उनका अर्थ बहुत छोटा लगता है पर उनका प्रभाव अत्यंत व्यापक है। सच तो यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान अत्यंत संक्षिप्त होता है पर अगर उनके बताये मार्ग पर चला जाये तो जीवन सहज हो जाता है।
निर्विचारवैशारद्योऽध्यात्मप्रसादः।।
ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा।।
हिन्दी में भावार्थ-
निर्विचार समाधि अत्यंत निर्मल होने पर अध्यात्मप्रसाद प्राप्त होता है। उस समय बुद्धि ऋतंभरा अर्थात किसी वस्तु के सत्य स्वरूप को ग्रहण करने वाली होती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य जाग्रत हो या निद्रा में उसके अंदर विचारों का क्रम चलता रहता है। मस्तिष्क का एक भाग दिन में सक्रिय रहता है जो रात में सुप्तावस्था को प्राप्त होता है। मस्तिष्क के दूसरे भाग से मनुष्य दिन में काम नहीं लेता पर वह रात को स्वप्न देखता है। वैज्ञानिक तथ्य तो यह है कि मनुष्य अपने मस्तिष्क का केवल पांच प्रतिशत भाग ही उपयोग करता है भले ही उसकी सक्रियता अधिक दिखती है।
कहने का मतलब है कि मस्तिष्क कभी विराम नहीं करता। कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि अगर रात के स्वप्न अगर सुबह याद रहें तो इसका मतलब यह है कि आप ने पूरी तरह से निद्रा का सुख प्राप्त नहीं किया।
सच बात तो यह है कि अगर कोई रात को सपना आये तो सुबह उसे याद करने का प्रयास तक नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे मस्तिष्क में अनावश्यक तनाव होता है। इससे बचने का एक ही उपाय है कि समय मिलने पर ध्यान लगाया जाये जिसकी चरम परिणति निर्विचार समाधि के रूप में होती है। जिस तरह शरीर में भोजन आदि ग्रहण किये पदार्थ योगसन से पूरी तरह बाहर विसर्जित किये जाते हैं उसी तरह समाधि से मस्तिष्क में व्याप्त चिंताओं का निराकरण किया जा सकता है। पुताई के लिये जिस तरह सारे घर का सामान बाहर निकालना आवश्यक है उसी तरह मस्तिष्क से विचारों का कचड़ा निकालने के लिये ध्यान लगाना जरूरी है।
जब ध्यान लगाते हैं तब मस्तिष्क में विचारों का क्रम चलता है पर इसकी परवाह न करते हुए अपनी दृष्टि भृकुटि पर ही रखना चाहिए। धीरे धीरे स्वतः लगने लगेगा कि मस्तिष्क में विचारों का क्रम थमता जा रहा है। जब ध्यान में विचारशून्यता की स्थिति उत्पन्न हो तब समझना चाहिये कि मस्तिष्क से विकार निकाल लिये। कई लोगों को यह मजाक लगता हो पर जिन लोगों ने इसका अनुभव किया है वह इसे समझते हैं और ज्ञानी माने जाते हैं। दूसरी बात यह है कि मस्तिष्क में कर्मकांडों का बोझा लिये इंसान इतना अभ्यस्त हो जाता है कि वह उससे निवृत होने का सुख जानता ही नहीं है। मगर जो लोग ध्यान के निर्विचार समाधि से अध्यात्म प्रसाद प्राप्त कर लेते हैं वह जानते हैं कि सच्चा सुख क्या होता है।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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