क्षान्त्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशा नाभिजातः सेवाधर्म परमगहनो योगिनामपयगभ्यः।।
हिंदी में भावार्थ-सेवा करने वाला यदि मौन रहे तो गूंगा, वाक्पट् हो तो बकवादी, समीप रहे तो ढीठ और दूरी बनाकर रखे तो मूर्ख, क्षमाशील हो तो भीरु, असहनशील हो अकुलीन कहा जाता है। यह सेवा धर्म अत्यंत ही कठिन है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-यहां सेवा से आशय गरीबों की सेवा से नहीं बल्कि नौकरी से है। कहते हैं न नौकरी क्यों करी? आधुनिक शिक्षा प्रणाली से शिक्षित अधिकतर युवा नौकरी के लिये इधार फिरते हैं। नौकरी तो नौकरी है चाहे जैसी भी हो-एक तरह से गुलामी है। सच तो यह है कि इसमें स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त ही हो जाता है। यह सही है कि नौकरी करने वाले को वेतन मिलता है पर उसको काम का दबाव और स्वामी या उच्च अधिकारी के व्यवहार का भय घर तक पीछा नहीं छोड़ता। अगर स्वामी या अधिकारी की हां में हां मिलाओ तो वह मूर्ख समझते हैं। अगर कोई सलाह दो तो सही होने पर भी मातहत के सामने हेठी न हो इसलिये अस्वीकार कर दी जाती है। नौकरी करने वाला अपने स्वामी या अधिकारी को रोज झुककर सलाम ठोके तो चमचा कहलाता है और न करे तो मक्कार!
नौकरी करने वाले तो अनेक लोग तो यही कहते हैं कि ‘कितना भी काम करो अपने बोस को खुश नहीं रखा जा सकता’। सच तो यह है कि नौकरी में बंधी बंधायी आय मिलने से खर्च भी वैसे ही हो जाते हैं और उसके खोने का खतरा आदमी को एक तरह गुलाम बना देता है। एक दूसरी बात भी है कि अवकाश के दिनों में आदमी आराम करना चाहता है और उसे घर के अन्य काम बोझ लगते हैं। इस तरह उसकी सामाजिक स्थिति भी अधिक सुदृढ़ नहीं रहती।
इसके विपरीत जो स्वतंत्र व्यवसाय करते है उनका जीवन संघर्षमय होने के कारण उनका दिमाग और देह हमेशा ही सक्रिय रहती है। फिर उनको भविष्य में विकास की संभावना अधिक काम के लिये स्वतः प्रेरित करती है जबकि नौकरी करने वाले के लिये विकास तो छोटी से बड़ी गुलामी में ही है।
एक स्वतंत्र व्यवसायी और नौकरी करने वाले की मासिक आय एक समान भी हो तब भी व्यवसायी अधिक आजादी से सांस ले पाता है। वह आगे चलकर अपने एक रुपये का दो कर सकता है पर नौकरी वाले के लिये यह संभव नहीं है। हालांकि अनेक नौकरी वाले छोटे व्यवसाय करने वालों को हेय समझते हैं पर सच तो यह है कि वह उनके मुकाबले अधिक आजादी से सांस ले पाते हैं। नौकरी में दिल का चैन केवल कहने के लिये है क्योंकि वह तो एक तरह से रोटी का गुलाम हो जाता है। भले ही उपरी कमाई से धन भी अधिक हो जाता है पर इतिहास गवाह रहा है कि अनेक गुलामों ने भी बहुत धन पाया पर कहलाये तो गुलामी ही न!
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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