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Saturday, September 26, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-मोर की वाणी किसे प्रिय नहीं होती (kautilya ka arthshastra)

मियमेवाभिघातव्यं नित्यं सत्सु द्विषत्सु च।
शिखीव केकामघुरः प्रियावाक् कस्य न प्रियः।।
हिंदी में भावार्थ-
मित्र हो या शत्रु सबसे ही मधुरवाणी में वार्तालाप करना चाहिए। आप देखें मोर की मधुर वाणी सभी को कितना प्रिय होती है।
तीव्राण्युद्वेगकारीणि विसृश्टान्यनवात्मकैः।
कृन्तन्ति देहिनां मम्र्भ शस्त्राणीव वर्चासि च।।
हिंदी में भावार्थ-
किसी के हृदय को उद्वेलित करने वाले वचन कुछ अनाचारी लोग उपयोग करते हैं उससे दूसरे को शस्त्र लगने के समान विदीर्ण हो जाते हैं पर सज्जन लोग कभी कटु शब्द और कर्कश वाणी से किसी अन्य को कष्ट नहीं देते।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम अपनी इंद्रियों के वशीभूत होकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं। हमारी प्रकृतियां मन, बुद्धि और अहंकार है जो हमारे व्यवहार का निर्धारण करती हैं। ऐसे में जिनकी प्रकृतियां नीच हैं वह अपनी कटु वाणी और व्यवहार से दूसरे को कष्ट देते हैं जबकि उच्च प्रकृति वाले सदैव अपने वचनों से दूसरों को प्रभावित करते हैं। इसलिये जहां तक हो सके दृष्टा की तरह अपना आत्ममंथन करते रहे ताकि अपने बुरे व्यवहार से समाज में हमें अलोकप्रियता प्राप्त न हो। अपना परीक्षण का सबसे अच्छा उपाय यह है कि हम पर किसी के अच्छे या बुरे व्यवहार और वाणी का क्या प्रभाव पड़ता है इसे देखें और उसके बाद यह तय करें कि हमें अब कौनसे मार्ग पर चलना है।
यह बात आत्मपरीक्षण से ही समझी जा सकती है कि जिस तरह दूसरे के व्यवहार से हम पर अच्छा या बुरा प्रभाव पड़ता है वैसे ही हमारे व्यवहार का भी दूसरे पर प्रभाव होता है। जहां हमने आत्मुग्धता का दृष्टिकोण अपने अंदर पाला वहीं से हमारा वैचारिक और नैतिक पतन प्रारंभ हो जाता है।
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