शत्रुवश पतितं कोऽयनुवन्दते मानवं पुंनः।।
हिंदी में भावार्थ-जीवन में उत्थान की तरफ बढ़ते हुए पुरुष का कार्यभिलाषी पुरुष सम्मान करते हैं और भला पतन की तरफ जा रहे शत्रु के समान पुरुष का कौन पूछता है।
अर्थार्थी जीवलोकोऽय ज्वलन्तमुपसर्पति।
क्षीणढीरां निराजीव्यां वत्सत्स्त्तव जति मातरम्।।
हिंदी में भावार्थ-धन में ही अपना स्वार्थ रखने वाला यह लोक लक्ष्मी की चमक से प्रज्जवलित पुरुष की सेवा करता है और दुग्धहीन जीविका न देने वाली माता को उसका बछड़ा भी त्याग देता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में अर्थ या धन सभी कुछ नहीं है पर फिर भी वह इस दैहिक जीवन का बहुत बड़ा आधार है। यह सच है कि अर्थ से धर्म का निर्वाह होता है पर उसका फल धन नहीं है परंतु संसार में जीवन को सुख और शांति से बिताने के लिये धन की आवश्यकता होती है। उसकी शक्ति ऐसी है कि पूरा मनुष्य समुदाय उसके पीछे भाग रहा है। कोई विद्वान या ज्ञानी अपने गुण, ज्ञान, दान और मार्गदर्शन से समाज के लिये बहुत काम करता है पर अगर वह स्वयं निर्धन है तो फिर लोग उसकी बात नहीं सुनते क्योंकि धन होना ही व्यक्ति की योग्यता का सबसे बड़ा प्रमाण है। अगर पुरुष के पास धन पर्याप्त मात्रा में न हो तो उसके परिवार वाले भी उसे त्याग देते है। कहने का तात्पर्य यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करना बहुत अच्छी बात है पर इसका आशय यह नहीं कि मनुष्य अपने स्वाभाविक कर्म से विरक्त हो जाये। उसी तरह अध्यात्मिक ज्ञान रखने वाले अगर सांसरिक कर्म करते हैं तो यह नहीं समझना चाहिये कि वह अज्ञानी हैं।
हां, यह बात निश्चित है अगर कोई अध्यात्मिक ज्ञानी होने के साथ ही धन भीपर्याप्त मात्रा में प्राप्त कर चुका है तो उसका अधिक ही समान होता है बनिस्बत उसके जो केवल धन के सहारे ही सम्मान प्राप्त करता है। इस संसार में धन के क्षेत्र में जैसे ही मनुष्य उन्नति की तरफ जाता है वैसे ही समाज उसका सम्मान करता है। धनी आदमी की सेवा सभी करते हैं पर निर्धन को वह एक तरह से शत्रु समझता है।
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