वह कभी शत्रु से पराजित नहीं होता।
2.जो राज्य प्रमुख विरोधी राष्ट्र पर आक्रमण करने की कामना करता है उसे अपने शत्रु राज्य के नगरों में प्रवेश कर उनके विधान के अनुसार धीरज के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिये।
3. अगहन (नवंबर-दिसंबर), फाल्गुन (फरवरी-मार्च), चैत्र (मार्च अप्रैल) में से जिस माह अपनी सेना के युद्ध करने की शक्ति बढ़ी हो राज्य प्रमुख को मुहूर्त निकाल कर युद्ध कर अपने शत्रु राजा के विरुद्ध युद्ध का अभियान प्रारंभ करना चाहिये। अगर शत्रु राज्य द्वारा अनावश्यक छेड़खानी की जा रही हो या स्वयं का हृदय ही युद्ध के लिये तैयार हो तो फिर राज्य प्रमुख को ऐसे ही लड़ाई शुरु कर देना चहिये।
4.वही राज्य प्रमुख कुशल माना जाता है जिससे मित्र, विरोधी तथा उदासीन राज्य (दिखाने के लिये उपेक्षा करने वाला) उसे दबा न सके।
5.राज्य प्रमुख को अपने ऐसे सहयोगी से सावधान रहना चाहिये जो गुप्त रूप से अपने विरोधी का हित साधना में लगा रहता है। ऐसे सेवक या अधिकारी से भी सतर्क रहना चाहिये जिसे एक बार राज्य प्रमुख अपनी सेवा से प्ृथक कर चुकने के बाद फिर उसे वापस लाया हो क्योंकि वह गुप्त रूप से विरोधी होकर अनेक प्रकार के संकट खड़ कर सकता है।
6.राज्य प्रमुख को अपने चारों और सेनापतियों और सेनानायकों को तैनात रखे। उसे जिस दिशा में सबसे अधिक भय लगे उसे पूर्व दिशा माने।
संपादकीय आशय- यहां वर्तमान संदर्भ में राजा की जगह राज्य प्रमुख लिया गया है। इसके अलावा यह नियम या विचार केवल युद्ध के लिये ही लागू नहीं होते बल्कि सामान्य आदमी को अपने व्यक्गित अभियान, धार्मिक यात्रायें तथा अन्य विशेष प्रकार के कार्यों के समय भी इनका ध्यान रखना चाहिये। यही कारण है कि हमारे देश में नवंबर,फरवरी, मार्च और अप्रैल में धार्मिक तथा अन्य सामाजिक गतिविधियां बढ़ जाती है।
-----------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
1 comment:
सामयिक और बढिया नीतियां जो चाण्क्य नीतियों में भी झलकते हैं। क्या हमारे राजनीतिज्ञ इनको पढकर लाभान्वित होंगे?
Post a Comment