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Sunday, July 5, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-जीवन में कभी आलस्य न करें (kautilya ka arthshastra)

भोक्तं पुरुषकारेण दृष्टसित्रयमिव वियम्।
व्यवसायं सदैवेच्छेन्न हि कलीववदाचरेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
दुष्ट स्त्री के समान धन पाने की इच्छा यानि लक्ष्मी को पुरस्कार से भोगने के लिये सदा उद्योग करते रहें। कभी आलस्य न करें।
प्रयत्नप्रेर्यर्वमणेन महता चितहस्तिना।
रूढ़वैरिद्रु मोत्खतमकृत्देव कुतः सुखम्।।
हिंदी में भावार्थ-
चित्त रूपी हाथी को अपने नियंत्रण में करने के प्रयास के साथ ही वैर रूपी वृक्ष को उखाउ़ फैंके बिना भला सुख कहां प्राप्त हो सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह सच है कि जीवन में मानसिक शांति के लिये अध्यात्मिक ज्ञान आवश्यक है पर दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति और सांसरिक दायित्वों के निर्वहन के लिये धन की आवश्यकता होती है। इसकी प्राप्ति के लिये भी उद्योग करना चाहिये। कभी जीवन में आलस्य न करें। भगवान श्री कृष्ण ने भी गीता में यही कहा है कि अपने सांसरिक कर्म करते हुए भक्ति करने के साथ ही ज्ञान प्राप्ति का प्रयास करें। निष्काम कर्म का श्रीगीता में आशय अक्सर गलत बताया जाता है। सच तो यह है उसमें धन की उपलिब्धयों को फल नहीं माना गया बल्कि उनसे तो सांसरिक कार्य का ही हिस्सा कहा जाता है। अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त होता है उससे हम दूसरे दायित्वों का निर्वहन करते हैं। वह अपने साथ नहीं ले जाते इसलिये उसे फल नहीं मानना चाहिये। सांसरिक कार्य के लिये धन जरूरी है और उसी से ही दान और यज्ञ भी किये जाते हैं।

इसके अलावा अपने मन में दूसरे की भौतिक उपलब्धियां देखकर निराशा या बैर नहीं पालना चाहिये। हमारे मानसिक दुःख का कारण यही है कि हम दूसरों के प्रति अनावश्यक रूप से द्वेष और बैर पाल लेते हैं। उनसे अगर विरक्त हो जायें तो आधा दुःख तो वैसे ही दूर हो जाये।
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